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Interview with Prachand Praveer, author of "Kal Ki Baat"


on Feb 28, 2022
Interview

लेखक प्रचण्ड प्रवीर को हिंदी कहानी के इतिहास में सबसे उल्लेखनीय प्रतिभा के रूप में स्वर्गीय विष्णु खरे द्वारा सराहा गया है। उनके कार्यों को प्रो हरीश त्रिवेदी, ज्ञान रंजन, वागीश शुक्ला और प्रयाग शुक्ला की पसंद से भी प्रशंसा मिली है। उनकी पुस्तकों के अनुवादों की व्यापक समीक्षा की गई है।

 

1. आपके लिए ऐसे कौन से मूल्य हैं जो जीवन की चंद छोटी-छोटी घटनाओं में छुप जाते हैं?

पहली बात यह समझ लेनी चाहिए कि मूल्य क्या होते हैं? मेरे हिसाब से मूल्य एक तरह की अभिलाषा है जो कि विवेक से संचालित होती है, और जिसमें स्वतंत्रता का समावेश होता है। मैं समझता हूँ ‘सत्य’ और ‘धर्म’ ही वे मूल्य हैं जीवन के हर घटनाओं में छुपे रहते हैं। सत्य का इतना बड़ा फलक है कि उसमें हमारे जीने का नजरिया, नैतिक मूल्य, आपसी व्यवहार,  महत्त्वाकांक्षा, सौन्दर्य, सपने आदि सभी बातें चली आती हैं। दूसरी बात उठती है कि हमारा कर्त्तव्य कैसा हो? धर्म का कर्त्तव्य के रूप में उतरना हमारे अधिकतर घटनाओं में छुपा रहता है। हमारे लिए प्रश्न ऐसे उठते हैं कि हम मित्रों से, बड़ों से, छोटों से – सभी सम्बन्धों में किस तरह का व्यवहार करें? आखिरकार हर कहानी चरित्र और घटनाओं के अलावा क्या होती है? इसके अलावा भारतीय चिन्तन हमेशा सत्य और धर्म के आस-पास ही घूमता रहा है, चाहे वो रामायण हो या महाभारत। इसलिए छोटी सी लगने वाली बात, यहाँ तक कि मनोरंजक हास-परिहास भी अंतत: सत्य और धर्म के स्वरूप को ही उजागर करता है।

2. आपने हर अध्याय में बहुत प्रसिद्ध कवियों की अलग-अलग कविताएँ और गीत लिए हैं। आपने किसी विशेष कवि को अपनी किसी विशेष कहानी में कैसे रखा?

ऐसे प्रयोग प्रसंग पर निर्भर करते हैं। जैसे कुछ कहानियों में ग़ालिब या मीर की ग़ज़लें काम आ गयीं। कुछ कहानियाँ विशिष्ट कवियों की कृतियों को सामने लाती हैं जैसे कि स्वर्गीय विष्णु खरे की कविताएँ, स्वर्गीय मंगलेश डबराल की कविता और कृष्ण कल्पित की एक कविता। विष्णु खरे का हिन्दी साहित्य में अनोखा और अभूतपूर्व योगदान है और उनके अवदान को याद करते हुए एक प्रविष्टि उनको समर्पित है। मंगलेश जी की कविता पसन्द आ गयी थी और उनकी अनुमति से एक प्रसंग में उसका प्रयोग किया गया। मैं समझता हूँ पद्य का सम्यक स्थान गद्य में ही है। कविता से गद्य की सुन्दरता बढ़ती है और कविता भी किसी गद्य में आश्रय पर कर उन अर्थों में ग्रहण हो सकती है जो साधारण तरीके से स्पष्ट नहीं हो पाती। साहित्य की विविध विधाओं का समावेश ही सांस्कृतिक सम्पूर्णताओं को उजागर कर सकता है जिसे मैं किसी भी गद्य का प्रमुख कार्य समझता हूँ।

3. "सब लोग जिधर वो है, उधर देख रहे हैं, हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं" कृपया इस उद्धरण पर अपने विचार साझा करें जिसे आपने पुस्तक में उपयोग किया है?

यह शेर दाग़ देहलवी की मशहूर ग़ज़ल से है। संयोग से पुस्तक की बहुत से कहानियाँ दिल्ली में घटित होती हैं। अत: इसी बहाने दाग़ देहलवी साहब को याद कर लिया गया। इसी ग़ज़ल का एक और शेर है - अब ऐ निगह-ए-शौक़ न रह जाए तमन्ना / इस वक़्त उधर से वो इधर देख रहे हैं। 
  पूरी ग़ज़ल पढ़ने के बाद तरसते रहने का भाव जो दिल में पैदा होता है वही कहानी में भी है। मेट्रो में सफर कर रही बहुत ही खूबसूरत लड़की से बातें करने का बहाना सभी ढूँढते हैं। मेरे ख्याल से अधिकतर लोग इसी तरह तरसते रह जाते हैं कि किसी तरह सुन्दरता उन पर भी मेहरबान हों और ऐसा हो नहीं पाता। लेकिन जैसा कि उस कहानी में होता है कि आप उनकी एक दो नज़र से अधिक के अधिकारी नहीं हैं। ऐसा ही होता है जीवन कि आप भी एक मामूली तमाशबीन से अधिक नहीं होते! 

4. "एक लड़की के चक्कर में बाबू मोशाय आज तुम्हारा जान जाएगा" "महाराजा एक्सप्रेस" नामक अध्याय की एक पंक्ति पाठकों को और अधिक पढ़ने के लिए उत्सुक छोड़ने के लिए इतनी दिलचस्प थी। आपकी लेखन शैली पर आपके क्या विचार हैं?

सच्चाई यह है कि मेरे बड़े भाई समान बंगाली दोस्त शान्तनु दा की बयान की हुयी यह सच्ची कहानी है। दादा अल्फ्रेड हिचकॉक के जबरदस्त फैन हैं। इतना ही नहीं वो सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, चार्ली चैप्लिन और बस्टर कीटन के भी बड़े दीवाने हैं। वे हमेशा कुछ न कुछ ऐसी क्रिएटिव बातें करते रहते हैं। इसमें कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है कि हम सबको जीवन में इस तरह के कई बहुत ही प्रतिभाशाली गायक, चित्रकार, कहानीकार मिलते रहते हैं। अन्तर इतना है कि मैंने उनके बताये हुए किस्से को लिख दिया जो आपको अच्छा लग रहा है। ऐसे ही हम सभी जिन्दगी में बेहद रोचक लोग से मिलते हैं और भूल जाया करते हैं। गुलजार साहब के शब्दों में – “छोटी बातें/ छोटी छोटी बातों की है यादें बड़ी/ भूले नहीं बीती हुई एक छोटी घड़ी ...”। हम सबको अपने जीवन मिलने वाले ‘आनन्द’ को भूलना नहीं चाहिए।


5. "मुझे गुलाब चाहिए, "दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हू मैं", "सोचो, साथ क्या जाएगा" जैसे शीर्षक अद्वितीय और आकर्षक हैं। आप इनके साथ कैसे आए?

इसमें मेरा बस इतना ही योगदान है कि ये घटनाएँ घटीं और इसे दर्ज कर लिया गया। हमारी नन्हीं दोस्त लिटिल मरमेड ने एक दिन सुबह-सवेरे हमसे गुलाब की जिद पकड़ ली थी। इसी तरह ‘सोचो साथ क्या जाएग’' बहुत प्रसिद्ध पंक्ति है – बहुत से लोग अक्सर ऐसा कहते मिल जाते हैं। यह सब हमारे आस-पास के परिवेश में है, जो जरा से ध्यान देने पर स्पष्ट हो जाती है। ‘दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर..” यह ग़ालिब की ग़ज़ल से है। यह एक बहुत प्रतिभाशाली कवयित्री से प्रभावित हो कर उनसे मिलने के प्रयत्न में ऐसा सुखद संयोग हो गया। 
  खैर, मैं समझता हूँ कि ऐसी घटनाएँ बहुतों की जीवन में होती रहती हैं। यदि नहीं होती तो इसका कारण समाज में सब से घुलने मिलने में संकोच या फिर अपने व्यवहार में कुछ ऐसा दोष है कि आप पर दूसरे भरोसा नहीं करते। आमतौर पर देखा जाय कि संसार में जितने आदमी हैं उतनी ही औरतें हैं। फिर भी ऐसा क्यों है कि अधिकतर आदमी अपने जीवन में अधिकांश आदमियों से और अधिकतर औरतें अपने जीवन में अधिकांश शऔरतें से ही बातें करती हैं। मैं समझता हूँ हमें अपने व्यवहार और सत्यनिष्ठता से सबके लिए सहज समाज विकसित करना चाहिए। यह बातचीत से ही सम्भव है।

6. क्या आप भावनाओं को ठीक वैसे ही ला रहे हैं जैसे वह है या किसी कल्पना के साथ?

यह बड़ा टेढा सवाल है। पहली बात तो यह ही पता नहीं चलती कि हमारी भावना ठीक-ठीक कैसी है! मनुष्य के चित्त में हमेशा कोई न कोई भाव या वृत्ति होती है। कुछ बड़े देर तक बनी रहती हैं और कुछ बड़ी जल्दी बदल जाती हैं। इन भावनाओं के बने रहने का कारण हमारी समझ, स्वभाव, इच्छा – बहुत कुछ से निर्धारित होता है। यह ठीक-ठीक कहना बहुत कठिन है कि हम वही महसूस कर रहे हैं, जो लिख रहे हैं। लिखने के क्रम में यह बड़े वैचित्र्य का विषय है। मैं नहीं कह सकता कि भावनाएँ कल्पित थी या वैसी ही थीं। लेकिन मै समझता हूँ इससे कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। पाठक को लिखे से ज्यादा कभी पता चल भी नहीं सकता और साथ ही, यथार्थ का पता चलने से भी कोई विशेष उपलब्धि नहीं मिलने वाली।
  मैं समझता हूँ इस सवाल में न जाना ही ठीक है।


7. जीवन का जश्न कैसे मनाएं? सफल होना है या खुश रहना ? अपने विचारों को साझा करें?

जीवन का जश्न मनाने को मैं एक चलताऊ विचार की तरह समझता हूँ। यह उतना ही छिछला है जितना सफल होना या खुश रहना। जीवन में सुख-दुख लगे ही रहते हैं। जो दुख में सुख ढूँढने लगे या उसे अनदेखा करे, मेरी समझ से वह उसके घोर पतन का कारण बनती है। मैंने कभी ऐसा रामायण में, महाभारत में या रामचरितमानस में नहीं देखा कि जीवन का जश्न मनाया जा रहा हो। ऐसा भी कभी नहीं देखा कि दुर्योधन या कर्ण जैसे खल पात्र भी दुश्मन को हरा लेने में ही सफलता या सार्थकता समझते हों। दूसरे शब्दों में महत्त्वाकांक्षा का पूरा होना ही सफलता नहीं है जो कि आजकल समझा जाता है। उसी तरह सभी आयामों में संतुलन के बिना कोई जड़ मूर्ख ही सदैव खुश हो सकता है। 
  जीवन में सुखित्व की कामना और प्राणरक्षा सभी चाहते हैं, पर यह जीवन के निम्नतम मूल्य हैं। मानव जीवन की गरिमा उच्चतम मूल्यों की पर्येषणा, उनके अन्वेषण और उनकी रक्षा करने में हैं। जीवन का मूल्य सत्य और धर्म में हैं। उन्हें ढूँढने में, वैसा सर्वोत्तम नैतिक आचरण करने में है। दाशरथी राम का चरित्र इसलिए अनुकरणीय है कि उन्होंने सत्य की टेक नहीं छोड़ी। कृष्ण का इसलिए अनुकरणीय है क्योंकि वे धर्म को स्वरूप को प्रकट करते हैं। 

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